संस्कृत में संधि के तीन प्रकार होते हैं: स्वर संधि, व्यंजन संधि, और विसर्ग संधि। प्रत्येक का अपना विशेष नियम और उदाहरण होता है।
संधि की व्युत्पत्ति
संधि शब्द की व्युत्पत्ति सम् उपसर्ग और धा धातु से हुई है। सम् का अर्थ है 'साथ' और धा का अर्थ है 'धारण करना'। इस प्रकार, संधि का अर्थ होता है 'साथ धारण करना' या 'मिलन'।[संधि का अर्थ होता है 'साथ धारण करना' या 'मिलन'।
स्वर संधि में दो स्वरों का मेल होता है, जिससे नए स्वर का निर्माण होता है। उदाहरण के लिए, हिम + आलय = हिमालय। यहाँ, इ + आ = ई होता है, जिसे दीर्घ संधि कहते हैं।[जिसे दीर्घ संधि कहते हैं।
व्यंजन संधि में दो व्यंजनों का मेल होता है, जिससे नए व्यंजन का निर्माण होता है। उदाहरण के लिए, उत् + हत = उद्धत। यहाँ, त् + ह = द्ध होता है।[त् + ह = द्ध होता है।
विसर्ग संधि में विसर्ग का मेल होता है, जिससे नए विसर्ग का निर्माण होता है। उदाहरण के लिए, अहम् + इदम् = अहमिदम्। यहाँ, म् + इ = मि होता है। यह संधि विसर्ग के मेल से होने वाले परिवर्तन को दर्शाती है और संस्कृत भाषा में विशेष महत्व रखती है।